आधा दिन बिगड़ गया !

(लेखक: गिजुभाई)

(अनुवाद: काशिनाथ त्रिवेदी)

 

किसी त्यौहार का दिन था । पर आज ठीक याद नहीं आ रहा कि कौन-सा त्यौहार था । त्यौहार के दिन से पहले की रात को मणिलाल के घर में बड़ा उत्साह रहा । बच्चे खुशी से उछलते-कूदते हुए कह रहे थे : ‘आहा ! कल बड़ा मजा आएगा ।’ मणिलाल और रेवा बहन सारी व्यवस्था के बारे में सोच रहे थे। मणिलाल मेरे पड़ोसी हैं, और एक हिसाब से मेरे मित्र भी हैं । सवेरा होने पर मणिलाल गाँव में साग-सब्जी खरीदने चले गए । रेवा बहन जागीं, और वे बच्चों को झटपट नहलाने-धुलाने लगीं । इस दिन रेवा बहन को ढेरो काम निपटाने थे । पड़ोसिन ने आकर कहा : ‘रेवा बहन ! जरा मेरे घर चलिए । मेरे भानजे का पेट दुख रहा है । आप उसको देख लीजिए ।’ सांप- छछूंदर की-सी हालत हो गई । जाती हैं, तो समय खर्च होता है। नहीं जाती हैं,  तो पड़ोसिन को बुरा लगता है !

अपने लल्लू को नहला देने के बाद रेवा बहन भानजे को देख आईं । लौटते समय बड़बड़ाने लगीं : ‘भला, इसमें मुझको दिखाना ही क्या था ? जरा भी कुछ हुआ कि तुरन्त ही मुझ को बुलाने आ जाते हैं ! हमारे भी अपने कुछ काम होते हैं या नहीं ? ये किसी वैद्य को क्यों नहीं बुला लेते ?’ रेवा बहन मन-ही-मन झल्ला उठीं । इधर नहाने के बाद लल्लू अपने हाथों धुले कपड़े निकालकर उनको पहन रहा था । लल्लू ने सारी पेटी के सब कपड़ों को उलट-पलट डाला था । रेवा बहन अपनी बेटी जमुना पर बरस पड़ीं । बोली:  ‘जमुना ! तुम देख नहीं रही हो ! लल्लू ने पेटी के सारे कपड़े उलट-पलट दिए हैं । लल्लू का बदन पोंछ दो, और सारे कपड़े फिर पेटी में जमा कर रख दो!’ लल्लू रोने लगा । जमुना ने अपना मुँह फुला लिया ।

वह बोली : “भला, इसमें मैं क्या करूँ ? लल्लू की तो यही आदत रही है।’  रेवा बहन ने कहा: ‘तो फिर कपड़े जिस तरह बिखरे पड़े हैं, उनको उसी तरह पड़े रहने दो । देखो, आज तुम किसी तरह की कोई गड़बड़ मत करो अभी तुम्हारे पिताजी आएँगे,  तो घर की हालत देखकर पूछेंगे,  यह क्या गड़बड़ मचा रखी है ?’ जमुना अपना सिर नीचा करके झम-फम करती हुई काम करने लगी । रेवा बहन गुस्से से बड़बड़ाती रहीं ।

रेवा बहन ने जगदीश को नहाने बुलाया । पर जगदीश पट्टी पर पहाड़े लिख रहा था । वह बोला : ‘माँ ! बस मैं आ ही रहा हूँ ! ‘रेवा बहन बोली: ‘मैं यहाँ कब तक तुम्हारी बाट देखूँ ? अभी तो मुझको हलुआ बनाना है। साग-सब्जी तो अभी आई ही नहीं है ! तुम जानते हो न कि आज भोजन के बाद हम सब को बगीचे में जाना है ।’ जगदीश ने कहा ‘लो…. मैं आ गया !’ लेकिन तभी रेवा बहन ने जगदीश की पट्टी उठाकर फेंक दी ! पट्टी के टुकड़े-टुकड़े हो गए । जगदीश रोने लगा । रेवा बहन ने गुस्से में कहा:  ‘अब रोते क्यों हो ? मैं तो तुमको कब से पुकार रही थी, पर तुम अपनी जगह से हिल ही नहीं रहे थे !’ इतने में बड़ा बेटा दीपक आ पहुँचा । रेवा बहन ने पूछा:  ‘दीपक ! तुम कहाँ चले गए थे ?’

दीपक बोला : ‘माँ ! मैं रामजी भाई से कुछ कहने गया था कि वे आज शाम यहाँ आकर हमको अपने जादू के खेल दिखाएँ ।’ रेवा बहन गरज कर बोली:  ‘इसकी अभी कौन जल्दी पड़ी थी ? यह काम तो दोपहर को भी हो सकता था ।’

दीपक बोला: ‘लेकिन माँ….’

‘चुप रहो ! तुम्हारे पैर घर में तो टिकते ही नहीं हैं !’

दीपक ने कहा: ‘लेकिन माँ….’

रेवा बहन बोली:  ‘सुनो, अब झटपट ये सारे कपड़े समेट लो। चारों तरफ सब कुछ बिखरा पड़ा है. और तुम्हारी हालत यह है कि तुम अभी तक नहाए भी नहीं हो !’ दीपक का मन नाराज हो उठा । वह नाराज मन से काम करने लगा । लल्लू रो रहा था । जमुना मुँह फुलाकर चावल बीन रही थी । दीपक का चेहरा तमतमाया हुआ था । रेवा बहन का सिर गरम हो उठा था । घड़ी में सुबह के साढ़े दस बज चुके थे ।

मणिलाल अभी तक लौटे नहीं थे । रेवा बहन अधीर बन कर बड़बड़ा रही थी : ‘कब साग आएगा, कब रवा आएगा । और कब सारी चीजें बनेंगी ? दो बजे तो हमको रुक्मिणी बहन के घर पहुँचना है ? इनकी आदत में तो कोई फरक पड़ता ही नहीं है ! कोई जान-पहचान के साथी कहीं मिल गए होंगे, और ये उन्हीं के साथ बैठ कर गप-शप करने में लगे होंगे!’ इतने में जूतों की आवाज आई और मणिलाल ने हँसते-हँसाते पूछा : ‘कहो, लल्लू, जमुना जगदीश, दीपक ! तुम सब तैयार हो रहे हो न ? बोलो, रसोई का काम कहाँ तक पहुँचा है? रेवा बहन की भौहें तन गईं । गुस्से भरी आवाज में वे गरज उठीं :  ‘भला, ये सब तैयार कैसे हो पाते ? आपके ये जगदीश,  लल्लू,  जमुना और दीपक ! इनमें से किसी में कोई सलीका है ? कोई ढंग-धड़ा भी है ? और आप को तो और भी देर करके आना चाहिए था न ? भला,  बिना रवे के मैं हलुवा कैसे बनाती ? क्या दिन में ग्यारह बजे साग-सब्जी लाने का कोई समय होता है ?’ मणिलाल ने कहा: ‘हम आज उस….’

‘अभी मुझको आपकी कोई भी बात सुननी नहीं है । आप पहले झटपट साग-सब्जी सँवार दीजिए कि मैं उसको चूल्हे पर चढ़ा कर छौंक दूँ । ‘ मणिलाल धीर-गंभीर बनकर साग-सब्जी सँवारने लगे । तभी लल्लू ने आकर कहा: ‘माँ,  हम को डाँट-फटकार रही थी ।’ जमुना बोली: ‘पिताजी ! माँ ने जगदीश की पट्टी फेंककर फोड़ डाली ।’

मणिलाल बोले : ‘जो हुआ। सो हुआ । आज तो हम में से किसी को न रोना है और न गुस्सा ही करना है । आज हमारे घर उत्सव होने वाला है न ! अब तुम सब सुनो, और मैं तुमको जो भी काम करने को कहूँ, तुम करने लगो ।’

रेवा बहन गरज उठी : ‘हाँ, अब सब बड़ी समझदारी की बातें कह रहे हैं । यहाँ अब तक जो हुआ, आज जो हुआ, कोई उसको देखने तो आता ! देखो, अब यह लल्लू शिकायत कर रहा है कि माँ ने यह किया और वह किया । और जमुना तो जमुना ही ठहरी । बदसूरत और बदतमीज !’ सुनकर बच्चे सब सहम उठे । जब मणिलाल ने साग सँवार दिया,  तो रेवा बहन ने धम-धम की आवाज के साथ बरतनों को उठा-पटक कर साग छौंक दिया । रेवा बहन का सिर तपा हुआ था । उनका मिजाज बेकाबू था ।

रेवा बहन ने कहा:  ‘कोई इधर रसोई घर में आना मत । मैं अकेले ही सब-कुछ कर लूँगी । मुझ को यहाँ आपकी (मणिलाल की भी) जरूरत नहीं है ।’ सब घर में चुपचाप बैठे रहे । बारह के बाद एक बजे के आसपास भोजन तैयार हुआ । रेवा बहन ने सारी तैयारी करके सबको भोजन के लिए बुलाया। लल्लू, जमुना, जगदीश, दीपक सब नीचा सिर किए भोजन करने आए । मणिलाल भी चुपचाप आकर बैठ गए । भला आज रेवा बहन किनके साथ बोलें और किन को बोलने के लिए कहें ! सब ने गुमसुम बनकर जैसे-तैसे भोजन कर लिया । किसी के मन में कोई खुशी नहीं थी । मणिलाल का मन तो जल-भुनकर खाक हो चुका था !

सब भोजन करके उठे । सब ने मीठा हलुआ खाया था, लेकिन कल रात की बातों में जो स्वाद रहा, वह आज के मीठे भोजन में गायब था । सब ने पान-बीड़े भी खाए,  लेकिन कुछ गुस्से में और कुछ अनमने ढंग से । मणिलाल ने सोचा कि अब वे विगड़ी बाजी को कुछ सुधार लें,  तो अच्छा हो । लेकिन रेवा बहन का सिर तो अभी तपा हुआ ही था । उन्होंने भी थोड़ा भोजन किया पर उसमें उनकी कोई रुचि नहीं रही ।’ इस तरह सब का आधा दिन बिगड़ गया !