घर में बालक का स्थान क्या है ?

(लेखक: गिजुभाई)

(अनुवाद: काशिनाथ त्रिवेदी)

 

घरों में रोज रसोई किसको पूछकर बनती है ? कितनी माताएँ हैं, जो रसोई बनाते समय इस बात का विचार करती हैं कि बालक को उनकी बनाई चीजें रुचेंगी या नहीं? उसको वे पचेंगी या नहीं ? अगर बालक को कोई चीज रुचती नहीं है, तो हम कहते हैं कि वह खाना जानता ही कहाँ है ? उसको स्वाद का कोई भान ही कहाँ है ? अगर बालक को कोई चीज़ तीखी लगती है, और वह उसको खाने से इनकार करता है, तो हम कहते हैं कि तीखी चीजें खाने की आदत तो उसको डालनी ही चाहिए ? हमको खारी और खट्टी चीजें अच्छी लगती हैं तो हम चाहते हैं कि बालक भी खारा-खट्टा खाए ? हमको भात अच्छा लगता है,  तो हम भात की और शाक अच्छा लगता हो,  तो शाक की हिमायत करते हैं। बालक को हमारा हुक्म मानना ही चाहिए,  क्योंकि हमारा शरीर बालक के शरीर से बड़ा है । लेकिन हमको इससे भी सन्तोष कहाँ होता है ? हम तो चाहते हैं कि बालक हमारी आदतों को, हमारे शौक़ों को और हमारी पसन्द को खुद ही अपना ले । बालक से हमारी अपेक्षा यह रहती है कि हम जिस तरह बैठते हैं,  बालक भी उसी तरह बैठना सीख ले । हम जिस तरह बोलते हैं, बालक भी उसी तरह बोले । तभी यह माना जाएगा कि हां,  वह बोलना जानता है । हम जो खाते हैं,  अगर बालक उसको न खाए,  तो कैसे माना जाए कि बालक खाना जानता है ? हम चाहते हैं कि जैसे हम हैं, हमारे बालक भी वैसे ही बनें । हमने खुद ही तय कर दिया है कि बालकों के लिए हमारा आदर्श पर्याप्त है। क्या कभी हम यह सोचते हैं कि हमारे बालक हम से भी ऊँची रुचि, वृत्ति और शक्ति वाले बन सकते हैं ?  क्या हम इस इतिहास को जानते हैं कि अपने पूर्वजों की तुलना में हम किन-किन बातों में आगे बढ़े हैं ? दुनिया आगे बढ़ती है या पीछे हटती है ? हमारे दिलों में हमारे अपने बच्चों की बातों के लिए कितनी जगह है? अगर हमारे बालक को विदेशी के बदले देशी कपड़े पहनने हों, तो क्या हमारा अर्थशास्त्र उसमें बाधक नहीं बनता ? क्या हम अपनी स्वार्थपूर्ण दृष्टि को भूल पाते हैं? यह बात सच है या झूठ हम अपने बालकों को अवसर ही नहीं देते कि वे नए युग की नई कल्पना को अपना सकें । कई बालकों को सिर पर टोपी पहनना और पैरों में जूते पहनना अच्छा नहीं लगता । लेकिन इसका क्या उपाय है कि अगर बेटा टोपी नहीं पहनता और नंगे पैरों घूमता है, तो बाप की आबरू चली जाती है ? जहाँ बाप चाहेगा,  कुरते की जेब वहीं तो लगेगी न ? इस मामले में बालक की सुविधा का ध्यान कैसे रखा जाए ? लड़की की घाघरी और उसके पोलके के प्रकार का निश्चय तो उसकी माँ को ही करना चाहिए न ? इस बात को मानता ही कौन है कि बालक में भी पसन्द करने की अपनी शक्ति होती है ? अपने बचपन में हम कौन से अपनी पसन्द की चीजें पहन पाते थे ? चूंकि उन दिनों हम गुलाम रहे इसलिए आज हमारे बालकों को भी हमारी उस गुलामी का प्रायश्चित तो करना ही चाहिए न ? अनुभवी माता ही इस बात का निर्णय करती है कि उसके बालक को किस समय,  किस दिन,  कैसे कपड़े पहनने चाहिए ? जो मां की आँखों को अच्छा लगता है,  वही सबको सुहाता है । यदि बालक ने बारात के या सभा के लायक कपड़े न पहने हों,  तो आबरू तो माता की ही जाती है न ? छोटे बच्चों की अपनी प्रतिष्ठा ही क्या है ? बालक तो माँ-बापों की अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के साधन जो ठहरे ! बालक तो माँ-बापों के दम्भ और अभिमान को सन्तुष्ट करने के उपकरण-भर हैं ! बूढ़ी मां खुद जिस चीज को पहन नहीं पाती,  उसको वह अपने बालक पर लादती है । भला,  जब माँ शोक में डूबी हो,  उस समय उसके बालक मौज कैसे मना सकते हैं ? बालकों की अपनी बिसात ही कितनी ? भला, उनको रंग का क्या खयाल हो ? वे बेचारे कला को क्या समझें ? सौन्दर्य को वे क्या जानें ? वे तो अपने माँ-बाप के बड़े-बड़े गुड्डा-गुड्डी हैं । माँ-बाप अपनी इच्छा के अनुसार अपने बच्चों को सजाते-सिंगारते हैं, और उनको देख-देखकर वे खुश होते हैं । वे उनको खेलाते हैं और खिलाते हैं । यह सब भी उन्हीं बालकों को नसीब होता है, जिनके माँ-बाप बहुत अच्छे माने जाते हैं । बालक बहुत चाहते हैं कि वे नंगे रह कर ही खेलें कूदें । लेकिन उस हालत में हमारे अपने शिष्टाचार का क्या हो ? माँ-बाप खुद शिष्टाचार की गुलामी से छूट कर ही तो अपने बालकों को उससे छुड़ा सकते हैं न ? भले ही गरमी पड़ रही हो और शरीर से पसीना बहने लगा हो,  फिर भी बालक को कपड़े तो पहनने ही होंगे । भले ही बालक के शरीर को घूमने-फिरने की आज़ादी न मिल पाए पर कपड़े तो उसको पहनने ही होंगे । नंगा बालक कितना बुरा लगता है ? बालक के सुन्दर शरीर को नक़ली कपड़ों से ढँकने के बाद ही हम को सन्तोष होता है, और तभी हमारी कला-रसिकता का दिवाला भी निकलता है । लेकिन बालक तो एक सामाजिक प्राणी भी है न? समाज के सारे नियम तो उसको जान ही लेने चाहिए? अगर उसने बचपन से कपड़े पहनना न सीखा,  और अपनी बड़ी उमर में वह नंगा रहने लगा,  तो सोचिए कि वह कैसा लगेगा ? बालक कुदरत का बच्चा है । खुली हवा और उगते सूरज की धूप,  ये दोनों उसके दोस्त हैं । बालक को धरती की गोद अपनी माँ की प्यारी गोद से भी अधिक प्यारी लगती है । धरती तो बालक की माँ की भी माँ है न ? लेकिन अगर बालक को खुली हवा में घूमने-फिरने देंगे तो उसको सरदी न हो जाएगी ? सूरज की धूप लगने से कहीं बालक को बुखार तो नहीं आ जाएगा ? बालक ज़मीन पर चले-फिरेगा, तो उसके कपड़े गन्दे होंगे और शरीर भी गन्दा होगा । यह है, हमारे सोचने का ढंग ! सोने से बिछौना गन्दा होता है,  इसलिए बिछौने पर सोना नहीं है । खेलने से कपड़े गंदे होते हैं,  इसलिए खेलना भी नहीं है ! यह है, हमारा न्याय ! हमारे अपने लिए एक नियम, बालकों के लिए दूसरा नियम । अगर कोई कभी किसी बच्चे से पूछे- ‘बेटा ! तुम खेलना चाहते हो,  या अपने कपड़ों की रखवाली करना चाहते हो ?’ तो सोचिए कि कैसा मुँह पर तमाचा लगने-जैसा जवाब मिलेगा !

प्रकृति का साथ और सहवास बालक में जीवन का संचार करता है । किसी को पता भी है कि पृथ्वी के सीधे स्पर्श में बालक का कितना और कैसा कैसा आनन्द छिपा है ? बालक को खुले रहकर खेलना कितना अच्छा लगता है,  इसको तो आप तभी समझ सकेंगे,  जब बालक आपके आगे-आगे दौड़े और आप उसके पीछे-पीछे दौड़ें । किसी को कोई अन्दाज है कि बालक की दृष्टि में सृष्टि का सारा जीवन ही चमत्कारों से भरा-पूरा है ?

धरती की निर्दोष धूल बालक को हमारे चन्दन से भी अधिक प्यारी लगती है । हवा की मीठी लहरें बालक को हमारे वासना-पूरित चुम्बन से कहीं अधिक प्यारी लगती हैं । उगते सूरज की कोमल किरणें बालक को हमारे खुरदरे हाथों से अधिक मुलायम लगती हैं । जहाँ हमको कुछ नहीं दिखाई देता,  वहाँ बालक को चमत्कार दिखाई देता है । छोटे-से पतिंगे को देखकर बालक पागल बन जाता है। पर्तिगे के साथ वह खुद भी पतिंगा बन जाता है । मेंढ़क को देखकर वह उछलने और कूदने लगता है । घोड़े को देखकर वह हिनहिनाने लगता है, और गाय को देखकर वह उसको टिटकारने लगता है! घास का एक छोटा-सा तिनका बालक के लिए एक बड़ी संग्रहणीय चीज बन जाता है ।

कभी आप अपने बालक की जेब टटोलेंगे,  तो उसमें आपको घास के तिनके,  फूल और पत्तियाँ ठूंसी हुई मिलेंगी । प्रकृति के साथ समरस हुए बिना बालक प्रकृति के रहस्यों को कैसे समझ सकेगा ? चाँद की चाँदनी,  नन्हीं-सी नदी,  खेतों की मिट्टी,  बाड़ी के घर,  टेकरी के कंकर,  खुले मैदान की हवा और आसमान के रंग,  ये सब वे उपहार हैं,  जो बालक को प्रकृति से प्राप्त हुए हैं । इन सबका भरपूर उपयोग करते रहने से हम बालक को क्यों रोकें ? यदि बालकों को खुले आसमान के नीचे और खुली धरती पर दिन-रात रखा जाए,  तो वे कभी घर के अन्दर आने की बात न करें । फूल तो बालक के जिगरी दोस्त होते हैं । उनको देखकर तो बालक पागल हो उठता है । फूलों को दूर से देखते ही उसकी नाक अपना काम शुरू कर देती है । उसके चेहरे पर एक चमक आ जाती है । उसके दाँतों की कलियां खिल उठती हैं। उसके गालों पर दो नन्हें गड्ढे उभर आते हैं ।

बालक फूल पर मुग्ध हो उठता है,  उसी तरह,  जिस तरह मां अपने बालक पर मुग्ध हो उठती है ।पहले बालक प्रकृति की मिठास को समझता है, और बाद में वह हमारी मिठास को समझ पाता है । नीचे धूल में लोटकर जब बालक ऊपर आसमान की ओर ताकता है, तो उस समय वह क्या करता है ? उस समय वह सारी प्रकृति को पी रहा होता है । वह सारी सृष्टि पर छा जाना चाहता है।सियार चाँद बालक को नित नया आनन्द देता है ! चाँद रात ही में दिखाई देता है,  इसलिए बालक बराबर सोचता रहता है कि दिन में चाँद कहाँ छिप जाता होगा ? शायद लुका-छिपी का अपना खेल बालकों ने चाँद ही से सीखा होगा ! घी-चुपड़ी रोटी का अर्थ हम तो मनचाहा करते हैं । यह तो लोक-साहित्य के आचार्यों का काम ठहरा । अपने रोते हुए बालक को चुप करने के लिए हम भले ही उसके साथ घी-चुपड़ी रोटी का खेल खेल लें,  लेकिन बालक तो यही समझता होगा कि उसको चाँद की चाँदनी खिलाई जा रही है ! मला,  चांद का उजाला और उसकी शीतलता किसको अच्छी न लगती होगी ? बालक का आनन्द तो चाँद का रंग देखने में है। चाँद की चाँदनी में नहा लेने में है, चाँद के उजाले को अपनी आँखों में भर लेने में है ।

इस बात को बालक तुरन्त ही मान लेता है कि चाँद पर एक हरिण और एक बुढ़िया बैठी है। यह बालक का भोलापन नहीं,  यह तो उसका पागलपन है । प्रकृति के साथ बालक का कुछ ऐसा ही लगाव रहता है । बालक के दिमाग़ को विज्ञान की कर्कशता अच्छी नहीं लगती । यही कारण है कि बालकों को परियों की कथाएँ प्यारी लगती हैं । अद्भुतता ही बालकों का स्वभाव है, और इस अ‌द्भुतता में ही उनका आनन्द समाया रहता है ।

लेकिन हमको इतनी फुरसत ही कहाँ कि हम अपने बालक के साथ चाँद की चाँदनी में घूमने निकलें ? क्या हमको चाँदनी पर कविता नहीं लिखनी है ? क्या हमको हरिण और बुढ़िया लोक-कथा के मूल की खोज नहीं करनी है ? क्या हम को इस बात का पता नहीं लगाना है कि चन्द्रमा में जीते-जागते प्राणी रहते हैं या नहीं ? किन्तु इन सब कामों के लिए आज फुरसत किसके पास है ? मनुष्य सच्चा कवि कैसे बने ? मनुष्य चित्रकला में चमत्कार के दर्शन किस तरह करे ? प्रकृति को पीए बिना मनुष्य प्रकृति को चित्रित कैसे करे ? वह उसका गान कैसे गाए ? वह उस पर कविता कैसे लिखे ? क्या बिना भोजन के भी पेट कभी भरता है? अपने बालक को प्रकृति से दूर रखकर हम उसको क्या बनाएँगे ?  देव या दानव ? अब मैं फिर वही प्रश्न पूछता हूँ: ‘घर में बालक का स्थान क्या है?’ अपने लिए किराए का घर पसन्द करते समय हम इस बात का विचार नहीं करते कि घर में बच्चों के लिए कोई जगह है या नहीं ? हाँ,  हम मकान मालिक से यह ज़रूर पूछते हैं कि घर में मोरी है या नहीं? रसोई घर में उजाला है या नहीं ? सोने के कमरे में हवा आती है या नहीं ? नहाने के लिए नल और पेशाब-पाखाने के लिए संडास है या नहीं ? गादियों और रजाइयों को धूप दिखाने के लिए ऊपर छत है या नहीं ? लेकिन क्या अभी तक किसी ने यह पूछा है या घर के अन्दर जाकर इस बात का पता लगाया है कि घर में बालकों के लिए खेलने की जगह है या नहीं ? भला,  किराए पर घर लेते समय हमको अपने बालक क्यों याद आने लगे ? बालकों के लिए अलग जगह की जरूरत ही क्या है ?  हमको तो यह विचार ही नया और अनोखा लगता है ।

बालकों के समान छोटे-छोटे प्राणियों के लिए आज ही से अलग हक की बात कैसी ? उनके लिए आज ही से यह सारी खटपट क्यों? यह सारा घर उन्हीं का तो है। इसमें रहकर वे खाएँ, पीएँ और मौज मनाएँ। इस सारे घर में घूमने, फिरने और खेलने से उनको रोकता ही कौन है ? लेकिन बालक गाएँ कहाँ ? वे बात कहां करें ? वे खेल कहाँ खेलें ? वे नाचना-कूदना चाहें,  तो नाचें और कूदें कहाँ ? वे रसोईघर में जाते हैं,  तो वहाँ माँ को परेशानी होती है । माँ की सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती है ? रसोईघर गन्दा हो जाता है । अगर पूजा-पाठ में लगी हों,  तो उसमें रुकावट पैदा होती है ।

बालक दीवानखाने जाते हैं,  तो वहाँ पिताजी अखबार पढ़ते होते हैं,  या अपने मुवक्किलों के लिए केस तैयार करने में लगे होते हैं,  या गाँव में होने वाले अपने भाषण की टिप्पणियाँ लिखते होते हैं । भला,  वहाँ बालकों को गड़बड़ करने की इजाजत कौन दे ? उधर बरामदे में बड़े भैया और बड़ी बहन,  दोनों अपना-अपना सबक़ तैयार करने में लगे हैं। भला, बालक वहाँ कैसे जाएँ,  कैसे खेलें और कैसे गाएँ ? इस तरह अपने घर के अन्दर बालक जहाँ भी जाते हैं,  वहाँ से उनको खाली लौटना पड़ता है । कहीं भूले-भटके बालकों को एक तरह घर का कोई कोना मिल भी गया,  तो वहाँ उनको अपनी कल्पना दौड़ाकर या तो गुड्डा-गुड्डी का खेल खेलना होता है, या झूठमूठ की रसोई बनाने और झूठमूठ ही खाने का खेल खेलना पड़ता है । लेकिन जरा सोचिए कि इस तरह हमारे बालकों की कल्पना शक्ति का सही-सही विकास कैसे हो सकता है ? अपने घरों में हमारे लिए और हमारे मेहमानों के लिए मेज होती है,  कुरसी होती है,  चटाई होती है,  और जाजम आदि चीजें बिछी रहती हैं । लेकिन क्या अपने उसी घर में हम अपने बालकों के लिए टाट का कोई टुकड़ा भी संभाल कर रखते हैं ? यदि हमारे बालकों से उनके दोस्त मिलने आएँ, तो वे उनको कहाँ बैठाएँ ? लेकिन हम यह जानने का प्रयल ही कब करते हैं कि छोटे बालकों के भी अपने दोस्त होते हैं ? दोस्त तो हमारे ही हो सकते हैं। भला,  हमारे छोटे बालक दोस्त में और दोस्ती में क्या समझें ? पर हमारी दोस्ती तो स्वार्थ वाली होती है,  जबकि बालकों की दोस्ती निर्दोष होती है ।

हमारे पास अपने गहने और कपड़े रखने के लिए आलमारियाँ,  ट्रंक और सन्दूकें होती हैं। लेकिन हमारे बालक अपने शंख और अपनी सीपें कहाँ रखें? क्या हमारे घरों में हमारे ही बालकों के द्वारा इकट्ठा किए गए पंखों को और उनके गुड्डा-गुड्डी के कपड़ों को रखने की भी कोई जगह कहीं होती है ? हमारी कोई चीज चोरी चली जाए,  तो बालक का ध्यान उस और नहीं जाता । लेकिन अगर कोई उसके द्वारा इकट्ठा किए गए पंख और फूटी कौड़ियाँ ले जाए तो वह क्या सोचेगा ? वह तो यही मानेगा कि उसका तो सारा राज ही चला गया । फिर भी अपने बालक के ऐसे कीमती संग्रह को संभाल कर रखने के लिए हम उसको एक पेटी या डिब्बा तक नहीं देते । अपने बालक के साथ हमारा यह कैसा अजब व्यवहार है ? असल में आज हमारे घरों में बालक की परवाह ही कौन करता है ?

हमारे घरों में ऐसी खूँटियाँ ही कहाँ हैं कि जिन तक बालक के अपने हाथ पहुँच सकें ? ऐसे टॉड कहाँ हैं? ऐसी आलमारियाँ कहाँ हैं ? हमारे घरों में टाँगी गई बढ़िया-बढ़िया तस्वीरें बहुत ऊँचाई पर टंगी होती हैं । उनकी तरफ हमारा अपना ध्यान ही बहुत कम जा पाता है । ऐसी स्थिति में बालकों के लिए उनका क्या उपयोग रह जाता है ?

अपने बालक के कपड़ें हम टाँगते हैं । ऊपर रखे हुए लोटे-गिलास उतार कर हम उनको देते हैं। बड़े-बड़े पट्टे या आसन हम बिछाते हैं। थालियाँ भी हम लगाते हैं । बालक बेचारा क्या करे ? इन सब बड़ी-बड़ी चीजों को वह कैसे उठाए ? कैसे पकड़े ? बालक चाहता तो बहुत है कि अपने सारे काम वह खुद ही करे, पर कर नहीं पाता । कैसे कर पाए ? हम तो यह मानते हैं कि हमारा बालक अपने काम खुद ही कर लेने के लायक नहीं है, इसलिए उसके सारे काम हमको कर देने चाहिए । अपने बालकों को चाहने वाले माता-पिता ये सारे काम करके यह मान लेते हैं कि वे अपने बालकों को बहुत सुखी बना रहे हैं । अपने बालक के महत्त्व को समझने का दावा करने वाले माता-पिता मानते हैं कि अपने बालकों के लिए वे जो कुछ भी करते हैं, सो सब उनकी पूजा करने और उनको सम्मानित करने के विचार से ही करते हैं । लेकिन असल में ये सब लोग अपने बालक को पल-पल में अपंग बनाते रहते हैं, और उसको अपना गुलाम बना लेते हैं । हम जिसके गुलाम बनते हैं, वह हमारा बड़ा गुलाम बन जाता है ।

क्या हम अपने बालक पर विश्वास करते हैं? उसके काम के बरतन उसको उठाने देते हैं? किसी को भोजन परोसने के मौने हम उसको कभी देते हैं? क्या हम उसको दीया-बत्ती करने देते हैं? क्या हम कभी उसको चूल्हा सुलगाने का काम सौंपते हैं ? उसके छोटे-छोटे रूमाल और कपड़े हम उसको धोने देते हैं ? हम तो कहते हैं कि बालक ये सारे काम खुद कर नहीं सकता । हम मानते हैं कि उसमें व्यवस्था करने की शक्ति ही नहीं होती । लेकिन हमारे पास बालक को देखने-समझने लायक आँख ही कहाँ है ? अज्ञान के घने अन्धकार ने हमको चारों ओर से घेर रखा है ।

अपने बालक पर विश्वास करके क्या हमने उसको कभी कोई काम करने का अवसर दिया ? बालक के बदले हम कभी खाते-पीते नहीं । बालक के बदले हम कभी चलते-फिरते नहीं । बालक के बदले हम कभी खेलते-कूदते भी नहीं । लेकिन हम अपने बालक के बदले उसके बरतन मांज दिया करते हैं । उसको कपड़े भी हम ही पहनाते हैं । भोजन के समय उसके लिए पाटा भी हम ही बिछा देते हैं । अगर कोई हमको हमारे लायक सारे काम करने से रोक दे तो हमको उसका यह व्यवहार कैसा लगेगा ? उस स्थिति में हमारी हालत गुलाम की होगी या मालिक की ?

क्या ऐसा मालिकपन हम पसन्द करेंगे ? यह मालिकपन होगा या मुर्दापन ? असल में, बालक तो सब कुछ कर सकते हैं। वे अपने छोटे-छोटे बरतन खुद मांज सकते हैं । छोटे झाडू से वे कमरे की सफाई कर सकते हैं । वे अपनी छोटी बहन को झूले में झुला सकते हैं । लेकिन ये सारी बातें हमको सूझती कहाँ है ? यदि बालक को हम अपने घरों में उचित स्थान दें तो हमारी इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग के राज्य की स्थापना हो जाए । हमारे घरों में देव खेलने के लिए आने लगें । देवों को मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ जाए ।

स्वर्ग बालक के सुख में है।

स्वर्ग बालक के स्वास्थ्य में है।

स्वर्ग बालक की प्रसन्नता में है।

स्वर्ग बालक की निर्दोष मस्ती में है।

स्वर्ग बालक के गाने में और गुनगुनाने में है!