एक सच्ची घटना 

(लेखक: गिजुभाई बघेका)

(अनुवाद: काशिनाथ त्रिवेदी)

 

आखिर यह दवा तो निर्दोष निकली, और इससे रम्भा को कोई नुकशान नहीं हुआ,  लेकिन अगर शीशी में जहर ही होता, और अनेक उपचार के बाद भी रम्भा मौत के मुंह में चली गई होती, अथवा किसी भयंकर बीमारी के चुंगल मे फँसी होती तो सोचिए कि क्या होता ? क्‍या उस दिन की वह असावधानी एक अपराध न मानी जाती ?  अजी,  इसमें मानने या न मानने का सवाल ही कहाँ उठता है ?  यह तो एक अपराघ ही माना जाएगा ।  क्योंकि इसमें कितना बड़ा संकट समाया हुआ था, इसका अन्दाज तो हमारी आधे घण्टे की इस परेशानी से लगता ही है।

यह लज्जा-जनक और अपराधपूर्ण घटना यों घटी थी:  रम्भा को बुखार आ रहा था। मलेरिया था । रुम्भा की माँ पुष्पा बहन ने  रमानाथ से कहा:  “रम्भा तो आज भी बेचैन ही है। क्या आप उसको क्वीनाइन की  एक खुराक दे देंगे ?”  पुष्पा बहन हाल ही आए मासिक पत्र को खोलकर उसके पन्ने  पलटने में लगी थीं । रमानाथ को जल्दी थी। नौकरी पर जाने का उनका समय हो  रहा था । क्वीनाइन की शीशी को वे जहाँ-तहाँ खोजने लगे । वे इस कमरे में, उस कमरे में,  सोने के कमरे में, वाचनालय वाले कमरे में, सब कहीं झटपट चक्कर लगा आए,पर शीशी उनको कहीं मिली नहीं । रमानाथ बोले:  ‘सुनो,  शीशी कहाँ रखी है?  मुझको तो मिल नहीं रही ।’  रसोई घर में जाते-जाते पुष्पा बहन ने कहा:  ‘आप एक बार फिर देख लीजिए मैं इस समय काम में हूँ ।’

रामनाथ अधीर हो उठे थे । उतावली में उन्होंने दूसरी बार सब जगह चक्कर लगाया। एक शीशी मिली । जबरदस्ती रम्भा का मुंह खुलवाकर दवा पिला दी ।  रम्भा बोली:  ‘अरे, आज तो यह दवा जरा भी कड़वी नहीं लगी  आज न तो सुपारी खानी। पडेगी,  न पानी पीना पड़ेगा ।’  सुनकर रमानाथ चौंके। बोले:  “अरे,  तुम यह क्या कह रही हो ? क्या मैंने  तुमको क्वीनाइन नहीं पिलाई ? तो मैंने तुमको क्या पिला दिया ?”  रमानाथ गहरे सोच में डूब गए, और घबरा उठे ।

पुष्पा बहन बोली:  ‘तो अब आप इसको अस्पताल ले जाइए। ऐसी भी  क्या उतावली थी कि जो भी शीशी हाथ में आई,  वही उठा ली ?”  जवाब में रमानाथ को खीझने की फुरसत नहीं थी । वे तो सीधे अस्पताल  पहुँचे । इधर पुष्पा बहन उनकी उतावली को कोसने लगी । और यह सोचकर रोनेलगी कि हे राम ! अब मेरी रम्भा का क्या होगा ?  “कहिए, रमानाथजी ! आज आप इस तरह हॉँफते-दौड़ते क्यों चले आ रहे हैं?”  ‘जी, जरा आप इस शीशी को देखिए । इसमें कौन सी दवा है?  गलती से  दूसरी दवा के बदले यह दवा दे दी गई है ।’

डॉक्टर ने पूछा:  ‘किसने दी है ?’

रमानाथ बोले:  “जी मैंने अपने हाथों दी है।’

डॉक्टर ने कहा :  “अभी इसकी बात छोड़िए, पहले बीमार को यहाँ फौरन ले आइए । दवा को देख कर क्या करना है ? बीमार की हालत देखनी होगी । रमानाथ उल्टे पैरों दौड़ पड़े । पानी बरस रहा था । फिर भी दौड़ते-दौड़ते  घर पहुँचे, और बीमार को लेकर दौड़ते ही .दौड़ते फिर डॉक्टर के पास आए । मन-ही-मन सोच रहे थे कि पता नहीं, क्या हुआ है, और क्या होने वाला है !

डॉक्टर ने रम्भा की जाँच शुरू की । आँखें देखी, पेट देखा, हाथ देखे,  नाखून देखे, सब कुछ देखा, तेजाब डालकर दवा की जाँच कर ली । रंग देखा । स्वाद देखा । सब कुछ देख लिया ।

डॉक्टर बोले:  “ठीक पता नहीं चल रहा है कि यह दवा क्या है। लेकिन यह ज़हर तो लगती नहीं है। बीमार पर इसका कोई बुरा असर नहीं हुआ है ।’  रमानाथ की चिन्ता दूर हुई । उनके चेहरे पर थोड़ी चमक आ गई ।

डॉक्टर ने कहा: सुनिए, रमानाथ जी ! जो होना था सो तो हो गया । लेकिन आपके समान  शिक्षित साथी को मैं उलाहना भी क्या दूँ ? क्या आप दवा की शीशी पर बीमार का नाम भी लिख नहीं  सकते ? आप तो समझदार हैं । पढ़ते- लिखते हैं। भाषण देते है, लेख लिखते है । क्या आप मामूली-सा काम आप नहीं कर सकते ? पुष्पा बहन भी पढी लिखी है । क्या वे ईतना काम नहीं कर सकती ? गनीमत है कि कोई गडबड नहीं हुई । किन्तु ऐसी स्थिति मे मौत भी हो  सकती है, ओर बालक भी हाथ से जा सकता है !’ रमानाथ लजित हो उठे । डॉक्टर ठीक ही कह रहे थे ।